Thursday, July 6, 2017
फूल और काँटा -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता,
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता।
एक ही पौधा उन्हें है पालता,
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता।
मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं,
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं।
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं,
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं।
छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन,
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन।
फाड़ देता है किसी का वर वसन,
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन।
फूल लेकर तितलियों को गोद में,
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से,
है सदा देता कली का जी खिला।
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से,
है सदा देता कली का जी खिला।
है खटकता एक सबकी आँख में,
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे,
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे,
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।
कर्मवीर अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जीवन परिचय
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' द्विवेदी युग के प्रमुख कवि है।
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी का जन्म 15 अप्रैल 1865 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में हुआ।
हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार
सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित भी किया था l
हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही
क्षेत्रों में रचनायें कीं-
उपन्यास
ठेठ हिन्दी का ठाठ
अधखिला फूल
महाकाव्य
प्रियप्रवास
वैदेही वनवास
मुक्तक काव्य
चोखे चौपदे
चुभते चौपदे
कल्पलता
बोलचाल
पारिजात
हरिऔध सतसई
नाटक
रुक्मणी परिणय
प्रदुम्न विजय
आलोचना
कबीर वचनावली
साहित्य सन्दर्भ
हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास।
एक तिनका अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
प्रियप्रवास अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी द्वारा रचित
"प्रियप्रवास" एक महाकाव्य जिसमे विरहकाव्य के तत्त्व है।
प्रियप्रवास की रचना 1909 से 1913 'हरिऔध' जी ने की l
प्रियप्रवास की रचना खड़ी
बोली में की गयी है l
प्रियप्रवास की भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है।
प्रियप्रवास में कुल सत्रह
(17) सर्ग हैं l
कथावस्तु-
प्रियप्रवास की कथावस्तु
का आधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध हैl
प्रियप्रवास में श्रीकृष्ण के जन्म
से लेकर उनके बड़े होने और उसके बाद उनके ब्रज से मथुरा को प्रवास
और लौट आने का वर्णन है l
प्रियप्रवास दो भागों
में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण
लेकर अक्रूर जी का ब्रज
में आना वर्णित है और वे श्रीकृष्ण को लेकर मथुरा चले जाते है।
नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक
की कथा में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों
को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते है।
जब भगवान ब्रज छोड़ कर मथुरा चले जाते हैं
तो दुखी यशोदा जी का वर्णन प्रियप्रवास में इस प्रकार किआ है –
प्रिय प्रति वह मेरा प्राण
प्यारा कहाँ है?
दुःख जल निधि डूबी का सहारा
कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आजलौं जी सकी
हूँ।
वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ
है?
लोक-सेवा की भावना- हरिऔध जी ने कृष्ण को ईश्वर रूप
में न दिखा कर आदर्श मानव और लोक-सेवक के रूप में दिखाया है। कृष्ण कहते हैं –
विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का,
सहाय होना असहाय जीव का।
उबारना संकट से स्वजाति का,
मनुष्य का सर्व प्रधान धर्म है।
राधा का चरित्र भी हरिऔध जी ने
नए तरीके से पेश किआ है –
राधा विश्व की प्रेमिका हैं वे वियोग
का दुख सह कर भी वे लोक-हित की कामना करती हैं-
प्यारे जीवें जग-हित करें, गेह चाहे न आवें।
आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की, विश्व के काम आऊँ
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे।
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे।
वैदेही वनवास अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
वैदेही वनवास अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' द्वारा रचित एक खण्डकाव्य है।
वैदेही वनवास में
कुल अठारह (18) सर्ग हैं।
कुल अठारह (18) सर्ग हैं।
वैदेही वनवास में
हरिऔध जी ने
साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।
हरिऔध जी ने
साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।
वैदेही वनवास का प्रकाशन 1940 में किया।
वैदेही वनवास में करुण रस की प्रधानता है।
वैदेही वनवास की कथावस्तु का आधार रामकथा है।
Sunday, July 2, 2017
भारत भारती मैथिलीशरण गुप्त
भारत भारती की प्रस्तावना में गुप्त
जी ने लिखा-
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व
और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक
वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का
शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य
जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक
है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या
हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ
तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे?
भारत भारती में तीन खण्ड हैं –
अतीत खण्ड,
वर्तमान खण्ड तथा
भविष्यत् खण्ड।
अतीत खण्ड-
अतीत खण्ड का मंगलाचरण इस प्रकार है -
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें
आरतीं-
भगवान् !
भारतवर्ष
में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे
भवगते।
सीतापते! सीतापते !!
गीतामते!
गीतामते !! ॥१॥
वर्तमान-खंड
वर्तमान-खंड में गुप्त जी ने देश की दुर्दशा
को यह कहकर दर्शाया है -
हम आज क्या से क्या हुए,
भूले हुए हैं हम इसे,
है ध्यान अपने मान का,
है ध्यान अपने मान का,
हममें बताओ अब किसे!
पूर्वज हमारे कौन थे,
पूर्वज हमारे कौन थे,
हमको नहीं यह ज्ञान भी,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी।
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी।
भविष्यत्-खंड-
भविष्यत्-खंड में राष्ट्रकवि ने समस्या
समाधान के हल खोजने का प्रयास किया है।
हम हिन्दुओं
के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं-
संसार में किस जाती को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं,
भव-सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें।
संसार में किस जाती को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं,
भव-सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें।
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