Thursday, July 6, 2017

प्रियप्रवास अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'  जी द्वारा रचित
"प्रियप्रवास" एक महाकाव्य जिसमे विरहकाव्य के तत्त्व है। 


प्रियप्रवास की रचना 1909 से 1913 'हरिऔध'  जी ने की l

प्रियप्रवास की रचना खड़ी बोली में की गयी है l

प्रियप्रवास की भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी  है। 

प्रियप्रवास में कुल सत्रह (17) सर्ग हैं l

कथावस्तु-

प्रियप्रवास की कथावस्तु का आधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध हैl

प्रियप्रवास में श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके बड़े होने और उसके बाद उनके ब्रज से मथुरा को प्रवास और लौट आने का वर्णन है l

 प्रियप्रवास दो भागों में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण लेकर अक्रूर जी का ब्रज में आना वर्णित है और वे श्रीकृष्ण को लेकर मथुरा चले जाते है।

नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की कथा में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते है।


जब भगवान ब्रज छोड़ कर मथुरा चले जाते हैं तो दुखी यशोदा जी का वर्णन प्रियप्रवास में इस प्रकार किआ है –

प्रिय प्रति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुःख जल निधि डूबी का सहारा कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आजलौं जी सकी हूँ।
वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ है?



लोक-सेवा की भावना- हरिऔध जी ने कृष्ण को ईश्वर रूप में न दिखा कर आदर्श मानव और लोक-सेवक के रूप में दिखाया है। कृष्ण कहते हैं –

विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का,
सहाय होना असहाय जीव का।
उबारना संकट से स्वजाति का,
मनुष्य का सर्व प्रधान धर्म है।


राधा का चरित्र भी हरिऔध जी ने नए तरीके से पेश किआ है –

राधा विश्व की प्रेमिका हैं वे वियोग का दुख सह कर भी वे लोक-हित की कामना करती हैं-

प्यारे जीवें जग-हित करें, गेह चाहे न आवें।

आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की, विश्व के काम आऊँ
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे।


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